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रामचर्चा--मुंशी प्रेमचंद


रामचर्चा अध्याय 2

वनवास

राजा दशरथ कई साल तक बड़ी तनदेही से राज करते रहे, किन्तु बुढ़ापे के कारण उनमें अब पहलेसा जोश न था, इसलिए उन्होंने रामचन्द्र जी से राज्य के कामों में मदद लेना शुरू किया। इसमें एक गुप्त युक्ति यह भी थी कि रामचन्द्र को शासन का अनुभव हो जाय। यों केवल नाम के लिए, वह स्वयं राजा थे, किन्तु अधिकतर काम रामजी के हाथों से ही होते थे। राम के सुन्दर परबन्ध की सारे राज्य में परशंसा होने लगी। जब राजा दशरथ को विश्वास हो गया कि राम अब शासक के धर्मों से भली परकार अवगत हो गये हैं और उन पर योग्यता से आचरण भी कर सकते हैं तो एक दिन उन्होंने अपने दरबार के परमुख व्यक्तियों को तथा नगर के परतिष्ठित पुरुषों को बुलाकर कहा—मुझे आप लोगों की सेवा करते एक समय बीत गया। मैंने सदा न्याय के साथ राज करने की कोशिश की। अब मैं चाहता हूं कि राज्य रामचन्द्र के सिपुर्द कर दूं और अपने जीवन के अन्तिम दिन किसी एकान्त स्थान में बैठकर परमात्मा की याद में बिताऊं।
यह परस्ताव सुनकर लोग बहुत परसन्न हुए और बोले—महाराज! आपकी शरण में हम जिस सुख और चैन से रहे उनकी याद हमारे दिलों से कभी न मिटेगी। जी तो यही चाहता है कि आपका हाथ हमारे सिर पर हमेशा रहे। लेकिन अब आपकी यही इच्छा है कि आप परमात्मा की याद में जिन्दगी बसर करें तो हम लोग इस शुभ काम में बाधक न होंगे। आप खुशी से ईश्वर की उपासना करें। हम जिस तरह आपको अपना मालिक और संरक्षक समझते थे, उसी तरह रामचन्द्र को समझेंगे।
इसी बीच में गुरु वशिष्ठ जी भी आ गये। उन्हें भी यह परस्ताव पसन्द आया। राजा ने कहा—जब आप लोग राम को चाहते हैं तो फिर अच्छी साइत देखकर उनका राजतिलक कर देना चाहिये। जितनी ही जल्दी मुझे अवकाश मिल जाय उतना ही अच्छा। सब लोगों ने इसे बड़ी खुशी से स्वीकार किया। तिलक की साइत निश्चित हो गयी। नगर में ज्योंही लोगों को ज्ञात हुआ कि रामचन्द्र का तिलक होने वाला है, उत्सव मनाने की तैयरियां होने लगीं। जिस दिन तिलक होने वाला था, उसके एक दिन पहले से शहर की सजावट होने लगी। घरों के दरवाजों पर बन्दनवारें लटकाई जाने लगीं, बाजारों में झण्डियां लहराने लगीं, सड़कों पर छिड़काव होने लगा, बाजे बजने लगे।
रानी कैकेयी की एक दासी मन्थरा थी। वह अति कुरूप, कुबड़ी औरत थी। कैकेयी के साथ मायके से आयी थी, इसलिए कैकेयी उसे बहुत चाहती थी। वह किसी काम से रनिवास के बाहर निकली तो यह धूमधाम देखकर एक आदमी से इसका कारण पूछा। उसने कहा—तुझे इतनी खबर भी नहीं! अयोध्या ही मैं रहती है या कहीं बाहर से पकड़कर आयी है? कल श्रीरामचन्द्र का तिलक होने वाला है। यह सब उसकी तैयारियां हैं।
यह समाचार सुनते ही मन्थरा को जैसे कम्प आ गया। मारे डाह के जल उठी। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि कैकेयी के राजकुमार भरत गद्दी पर बैठें और कैकेयी राजमाता हों, तब मैं जो चाहूंगी, करुंगी फिर तो मेरा ही राज होगा और रानियों की दासियों पर धाक जमाऊंगी। सिर से पैर तक गहनों से लदी हुई निकलूंगी तो लोग मुझे देखकर कहेंगे, वह मन्थरा देवी जाती हैं। फिर मुझे किसी ने कुबड़ी कहा तो मजा चखा दूंगी। इसी तरह के मनसूबे उसने दिल में बांध रखे थे। इस खबर ने उसके सारे मनसूबे धूल में मिला दिये। जिस काम के लिये जाती थी उसे बिल्कुल भूल गयी। बदहवास दौड़ी हुई महल में गयी और कैकेयी से बोली—महारानी जी! आपने कुछ और सुना? कल राम का तिलक होने वाला है।
तीनों रानियों में बड़ा परेम था। उनमें नाम को भी सौतियाडाह न था। जिस तरह कौशल्या भरत को राम की ही तरह प्यार करती थीं, उसी तरह कैकेयी भी राम को प्यार करती थीं। रामचन्द्र सबसे बड़े थे इसलिए यह मानी हुई बात थी कि वही राजा होंगे। मन्थरा से यह खबर सुनकर कैकेयी बोली—मैं यह खबर पहले ही सुन चुकी हूं, लेकिन तूने सबसे पहले मुझसे कहा, इसलिए यह सोने का हार तुझे इनाम देती हूं। यह ले।
मन्थरा ने सिर पर हाथ मारकर कहा—महारानी! यह इनाम में शौक से लेती अगर राम की जगह राजकुमार भरत के तिलक की खबर सुनती। यह इनाम देने की बात नहीं है, रोने की बात है। आप अपना भलाबुरा कुछ नहीं समझतीं।
कैकेयी—चुप रह डाइन! तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते लाज भी नहीं आती? रामचन्द्र मुझे भरत से भी प्यारे हैं। तू देखती नहीं कि वह मेरा कितना आदर करते हैं? बिना मुझे सलाह लिये कोई काम नहीं करते! फिर यह सबसे बड़े हैं। गद्दी पर अधिकार भी तो उन्हीं का है! फिर जो ऐसी बात मुंह से निकाली, तो जबान खिंचवा लूंगी।
मन्थरा—हां, जबान क्यों न खिंचवा लोगी! जब बुरे दिन आते हैं, तो आदमी की बुद्धि पर इसी परकार पर्दा पड़ जाता है। तुम जैसी भोलीभाली, नेक हो, वैसा ही सबको समझती हो। राम को बेटाबेटा कहते यहां तुम्हारी जबान सूखती है, वहां रानी कौशल्या चुपकेचुपके तुम्हारी जड़ खोद रही हैं। चार दिन में वही रानी होंगी। तुम्हारी कोई बात भी न पूछेगा। बस, महाराज के पूजा के बर्तन धोया करना। मेरा काम तुम्हें समझाना था, समझा दिया। तुम्हारा नमक खाती हूं, उसका हक अदा कर दिया। मेरे लिये जैसे राम, वैसे भरत। मैं दासी से रानी तो होने की नहीं। हां, तुम्हारे विरुद्ध कोई बात होते देखती हूं तो रहा नहीं जाता। मेरे मुंह में आग लगे कहां से कहां मैंने यह जिक्र छेड़ दिया कि सबेरेसबेरे डाइन, चुड़ैल बनना पड़ा। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।
इन बातों ने आखिर कैकेयी पर असर किया। समझी, ठीक ही तो है, रामचन्द्र राजा होकर भरत को निकाल दें या मरवा ही डालें तो कौन उनका हाथ पकड़ेगा। मैं भी दूध की मक्खी की तरह निकाल दी जाऊंगी। बहुत होगा रोटी, कपड़ा मिल जायगा। राज्य पाकर सभी की मति बदल जाती है। राम को भी अभिमान हो जाय तो क्या आश्चर्य है। जभी कौशल्या मेरी इतनी खातिर करती हैं। यह सब मुझे तबाह करने की चालें हैं। यह सोचकर उसने मन्थरा से कहा—मन्थरा, देख, मेरी बातों को बुरा न मान। मैं क्या जानती थी कि मुझे और भरत को तबाह करने के लिए कौशल रचा जा रहा है। मैं तो सीधीसादी स्त्री हूं, छक्कापंजा क्या जानूं। अब तूने यह बात सुनायी तो मुझे सचाई मालूम हो रही है; मगर अब तो तिलक की साइत निश्चित हो चुकी। कल सबेरे तिलक हो जायगा। अब हो ही क्या सकता है।
मन्थरा—होने को तो बहुत कुछ हो सकता है। बस जरा स्त्रीहठ से काम लेना पड़ेगा। मैं सारी तरकीबें बतला दूंगी। जरा इन लोगों की चालाकी देखो कि तिलक की साइत उस समय ठीक की, जब राजकुमार भरत ननिहाल में हैं। सोचो, अगर दिल साफ होता तो दसपांच दिन और न ठहर जाते! भरत के आ जाने पर तिलक होता तो क्या बिगड़ जाता। मगर वहां तो दिलों में मैल भरा हुआ है। उनकी अनुपस्थिति में चुपके से तिलक कर देना चाहते हैं।
कैकेयी—हां, यह बात भी तुझे खूब सूझी। शायद इसीलिए भरत को पहले यहां से खिसका दिया है, पहले से ही यह बात सधीबदी थी। खेद है, मुझे मिट्टी में मिलाने के लिए ऐसेऐसे षड्यंत्र रचे जाते रहे और मैं बेखबर बैठी रही। बतला, अब मैं क्या करुं? मेरी तो बुद्धि कुछ काम नहीं करती।
मन्थरा ने अपना कूबड़ हिलाकर कहा—वारी जाऊं महारानी! आप भी क्या बातें करती हैं। आपको ईश्वर ने ऐसा रूप दिया है और महाराज को आपसे ऐसा परेम है कि रात भर में आप न जाने क्याक्या कर सकती हैं। आप तो सारी बातें भूल जाती हैं। ऐसी भुलक्कड़ न होतीं तो बैरियों को ऐसे षड्यंत्र करने का मौका ही क्यों मिलता। अब तक तो भरत का कभी तिलक हो गया होता। तुम्हीं ने एक बार मुझसे कहा था कि महाराज ने तुम्हें दो वरदान देने का वचन दिया है। क्या वह बात भूल गयीं?
कैकेयी—हां, भूल तो गयी थी, पर अब याद आ गया। एक बार महाराज लड़ाई के मैदान से घायल होकर आये थे और मैंने मरहमपट्टी करके रात भर में उन्हें अच्छा कर दिया था। उसी समय उन्होंने मुझे दो वरदान दिये थे। मैंने कहा था, मुझे आपकी दया से किस बात की कमी है। जब आवश्यकता होगी, मांग लूंगी।
मन्थरा—बस, फिर तो सारी बात बनीबनायी है। आज तुम कोपभवन में जाकर बैठ जाओ। आभूषण इत्यादि सब उतार फेंको। केवल एक मैलीकुचैली साड़ी पहन लेना, और सिर के बाल खोलकर ज़मीन पर पड़ रहना। महाराज तुम्हारी यह दशा देखते ही घबरा जायेंगे। बस उसी समय दोनों वचन की याद दिलाकर कहना कि अब उन्हें पूरा कीजिये—एक यह कि राम के बदले भरत का तिलक हो, दूसरे यह कि राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास दिया जाय। महाराज वचन के पक्के हैं, अवश्य ही मान जायंगे। फिर आनन्द से राज्य करना।
दिन तो उत्सव की तैयारियों में गुजरा। रात को जब राजा दशरथ कैकेयी के महल में पहुंचे तो चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ, न कहीं गाना, न बजाना, न राग, न रंग। घबराकर एक दासी से पूछा—यह अंधेरा क्यों छाया हुआ है, चारों तरफ उदासी क्यों फैली हुई है? तू जानती है, महारानी कैकेयी कहां हैं? उनकी तबियत तो अच्छी है?
दासी ने कहा—महारानी जी ने गानेबजाने का निषेध कर दिया है। वह इस समय कोपभवन में हैं।
महाराजा का माथा ठनका। यह रंग में क्या भंग हुआ। अवश्य कोई न कोई विपत्ति आने वाली है। उनका दिल धड़कने लगा। घबराये हुए कोपभवन में गये तो देखा, कैकेयी भूमि पर पड़ी सिसकियां भर रही हैं।
राजा दशरथ कैकेयी को बहुत प्यार करते थे। उनकी यह दशा देखते ही उनके हाथों के तोते उड़ गये। भूमि पर बैठकर बोले—महारानी! कुशल तो है? तुम्हारी तबियत कैसी है? शीघर बतलाओ, वरना मैं पागल हो जाऊंगा। क्या बात हुई है? तुम्हें किसी ने कुछ ताना दिया है? कोई बात तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध हुई है? जिसने तुमसे यह धृष्टता की हो, उसको इसी समय दण्ड दूंगा।
कैकेयी ने आंसू पोंछते हुए कहा—मुझे कुछ नहीं हुआ। बहुत भली परकार हूं। खाने को रोटियां, पहनने को कपड़े, रहने को मकान मिल ही गया है, अब और किस बात की कमी हो सकती है? आप भी परेम करते ही हैं। जाइये, उत्सव मनाइये। मुझे पड़ी रहने दीजिए। जिसका भाग्य ही बुरा है, उसे आप क्या करेंगे।
राजा ने कैकेयी को भूमि से उठाने की चेष्टा करते हुए कहा—महारानी, ऐसी बातें न करो। मुझे दुःख होता है। तुम्हें ज्ञात है, मैं तुमसे कितना परेम करता हूं। मैंने कभी तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया। तुम्हें जो शिकायत हो, साफसाफ कह दो। मैं परतिज्ञा करता हूं कि इसी समय उसे पूरा करुंगा।
कैकेयी ने त्योरियां बदलकर कहा—आप जितना मुझसे कहते हैं, उसका एक हिस्सा भी करते, तो मेरी हालत आज ऐसी खराब न होती। अब मुझे मालूम हुआ है कि आपका यह परेम केवल बातों का है। आप बातों से पेट भरना खूब जानते हैं। दुनिया आपको वचन का पक्का कहती है। आपके वंश में लोग वचन के पीछे जान देते चले आये हैं; मगर मुझसे तो आपने जितने वादे किये, उनमें एक भी पूरा न किया। अब और किस मुंह से मांगूंगी।
राजा—मुझे यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है। जहां तक मुझे याद है, मैंने तुम्हारे साथ जितने वादे किये, वे सब पूरे किये। वह कौनसा वादा है, जिसे मैंने नहीं पूरा किया? इसी समय पूरा करुंगा। बस तनिकसी बात के लिए तुम्हें कोपभवन में बैठने की क्या जरूरत थी?
कैकेयी भूमि से उठकर बैठी और बोली—याद कीजिये, एक बार आपने मुझे दो वरदान दिये थे—जिस दिन आप लड़ाई में घायल होकर लौटे थे।
राजा—हां, याद आ गया। ठीक है। मैंने दो वरदान दिये थे। मगर तुमने ही तो कहा था कि जब मुझे जरूरत होगी, मैं लूंगी।
कैकेयी—हां, मैंने ही कहा था। अब वह समय आ गया है। आप उन्हें पूरा करने को तैयार हैं?
राजा—मन और पराण से। यदि तुम जान भी मांगो तो निकालकर दे दूंगा।
कैकेयी ने जमीन की तरफ ताकते हुए कहा—तो सुनिये। मेरा पहला वरदान यह है कि राम के बदले भरत का तिलक हो, दूसरा यह कि राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास दिया जाय।
ओह निष्ठुर कैकेयी! तूने यह क्या किया? तुझे अपने वृद्ध पति पर तनिक भी दया न आयी? क्या तुझे ज्ञात नहीं कि रामचन्द्र ही उनके जीवनाधार हैं! राजा के चेहरे का रंग पीला पड़ गया। मालूम हुआ, सांप ने काट लिया। ठंडी सांस भरकर बोले—कैकेयी क्या तुम्हारे मुंह से विष की बूंदें टपक रही हैं? क्या तुम्हारे हृदय में राम की ओर से इतना मालिन्य है? राम का आज संसार में कोई बुरा चाहने वाला नहीं। वह सबकी आंखों का तारा है। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, उतना अपनी शायद मां का नहीं करता। तुमने आज तक उसकी शिकायत न की, बल्कि हमेशा उसके शीलविनय की तारीफ किया करती थी! आज यह कायापलट क्यों हो गया? अवश्य किसी शत्रु ने तुम्हारे कान भरे हैं और राम की बुराइयां की हैं।
कैकेयी ने तिनककर कहा—कान तुम्हारे भरे हैं, मेरे कान नहीं भरे गये हैं। अपना लाभ और हानि जानवर तक समझते हैं। क्या मैं जानवरों से भी गयीबीती हूं? निश्चय देख रही हूं कि मेरा बाग उजाड़ किया जा रहा है। क्या उसकी रक्षा न करुं? अपनी गर्दन पर तलवार चल जाने दूं? आपको अब तक मैं निर्मलहृदय समझती थी। मगर अब मालूम हुआ कि आप भी केवल बातों से परेम के हरेभरे बाग दिखाकर मुझे नष्ट करना चाहते हैं। कौशल्या रानी ने आपको खूब मन्त्र पॄाया है। उस नागिन के काटे की दवा नहीं। अब मैं दिखा दूंगी कि कैकेयी भी राजा की लड़की है, किसी शूद्र, चमार की नहीं कि इन चालों को न समझे।
राजा—कैकेयी, मैं कभी झूठ नहीं बोला, मैं तुमसे सच कहता हूं कि मैंने राम के तिलक का निश्चय स्वयं किया। कौशल्या ने इस विषय में मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा। तुम्हारा उन पर सन्देह करना अन्याय है। राम ने भी भरत के विरुद्ध एक शब्द नहीं कहा। मेरे लिए राम और भरत दोनों बराबर हैं। किन्तु अधिकार तो बड़े लड़के का ही है। यदि मैं भरत का तिलक करना भी चाहूं, तो तुम समझती हो, भरत उसे स्वीकार करेंगे? कदापि नहीं। भरत के लिए यह असम्भव है कि वह राम का अधिकार छीनकर परसन्न हों। राम और भरत एक पराण दो शरीर हैं। तुमने इतने दिनों के बाद वरदान भी मांगे तो ऐसे, जो इस घर को नष्ट कर देंगे—शायद इस राज्य का अंत ही कर दें। खेद!
कैकेयी ने उंगली नचाकर कहा—अच्छा! तो क्या आपने समझा था कि मैं आपसे खेलने के लिए गुड़िया मांगूंगी? क्या किसी मजदूर की लड़की हूं? अब इन चिकनीचुपड़ी बातों में आप मुझे न फंसा सकेंगे। आपको और इस घर के आदमियों को खूब देख चुकी। आंखें खुल गयीं। यदि आपको वचन के सच्चे बनने का दावा है तो मेरे दोनों वरदान पूरे कीजिये। अन्यथा फिर रघुवंशी होने का घमण्ड न कीजियेगा। यह कलंक सदैव के लिए अपने माथे पर लगा लीजिए कि रघुकुल के राजा दशरथ ने वादे किये थे, पर जब उन्हें पूरा करने का समय आया तो साफ निकल गये।
राजा ने तिलमिलाकर कहा—कैकेयी, क्यों जले पर नमक छिड़कती हो! मैं अपने वचन से कभी न फिरुंगा, चाहे इसमें मेरा जीवन, मेरे वंश और मेरे राज्य का अन्त ही क्यों न हो जाय। शायद बरह्मा ने राम के भाग्य में वनवास ही लिखा हो। शायद इसी बहाने से इस वंश का नाश लिखा हो। किन्तु इसका अपयश सदा के लिए तुम्हारे नाम के साथ लगा रहेगा। मैं तो शायद यह चोट खाकर जीवित न रहूंगा। मगर मेरी यह बात गिरह बांध लो कि राम को वनवास देकर तुम भरत के राज्य का सुख न देख सकोगी।
कैकेयी ने झल्लाकर कहा—यह आप भरत को शाप क्यों देते हैं? भरत राजा होंगे। आपको उन्हें राज्य देना पड़ेगा। वह राजा हो जायं यही मेरी अभिलाषा है। मैं सुख देखने के लिए जीवित रहूंगी या नहीं, इसका हाल ईश्वर जाने।
राजा—यह तो मैं बड़ी परसन्नता से करने को तैयार हूं मेरे लिए राम और भरत में कोई अन्तर नहीं। मैं इसी समय भरत को बुलाने के लिए आदमी भेज सकता हूं। ज्योंही वह आ जायंगे, उनका तिलक हो जायगा। किन्तु राम को वनवास देते हुए मेरे हृदय के टुकड़े हुए जाते हैं। हाय! मेरा प्यारा राजकुमार चौदह वर्ष तक जंगलों में कैसे रहेगा? जो सदा फूलों के सेज पर सोया, वह पत्थर की चट्टानों पर घासपात का बिछौना बिछाकर कैसे सोयेगा? कैकेयी ईश्वर के लिए मुझ पर दया करो, इस वंश पर दया करो। अपना दूसरा वरदान पूरा करने के लिए मुझे विवश न करो।
कैकेयी ने राजा की ओर देखकर आंखें नचायीं और बोलीं—साफसाफ क्यों नहीं कहते कि मैं अपने वचन पूरे न करुंगा। क्या मैं इतना भी नहीं समझती कि राम के रहते बेचारा भरत कभी आराम से न बैठने पायेगा। राम अपनी मीठीमीठी बातों से परजा का हृदय वश में करके राज्य में क्रान्ति करा देंगे। भरत का जीवित रहना कठिन हो जायगा। मेरे दोनों वरदान आपको पूरे करने पड़ेंगे। अब आपके धोखे में न आऊंगी।
राजा समझ गये कि कैकेयी को समझाना अब बेकार है। मैं जितना ही समझाऊंगा, उतना ही यह झल्लायेगी। सिर थामकर सोचने लगे कि क्या जवाब दूं। मालूम होता है, आंखों में अंधेरा छा गया है। कोई हृदय को चीरे डालता है। हाय! जीवन की सारी अभिलाषाएं धूल में मिली जा रही हैं। ईश्वर! यदि तुम्हें यही करना था तो बेटे दिये ही क्यों। बला से नि:संतान रहता। युवा बेटे का दुःख तो न देखना पड़ता। यह तीनतीन विवाह करने का फल है! बुढ़ापे में विवाह करने का यह फल! उससे अधिक मूर्ख दुनिया में कोई नहीं जो बुढ़ापे में विवाह करता है। वह जानबूझकर विष का प्याला पीता है। हाय! सुबह होते ही राम मुझसे अलग हो जायंगे। मेरा प्यारा हृदय का टुकड़ा जंगल की राह लेगा। भगवान्! इसके पहले कि इसके वनवास की आज्ञा मेरे मुंह से निकले, तुम मुझे इस दुनिया से उठा लेना। इसके पहले मैं उसे साधुओं के भेष में वन की ओर जाते देखूं, तुम मेरी आंखों को निस्तेज कर देना। हाय! ईश्वर करता राम इतना आज्ञाकारी न होता। क्या ही अच्छा होता कि वह मेरी आज्ञा मानना अस्वीकार कर देता। कैकेयी राजा को चिंता में डूबे हुए देखकर बोली—आप सोच क्या रहे हैं? बोलिये, मेरी बातें स्वीकार करते हैं या नहीं?
राजा ने आंसुओं से भरी हुई आंखों से कैकेयी को देखकर कहा—रानी! यह पूछने की बात नहीं। अपने वचन से न फिरुंगा। तुम्हारी दोनों बातें स्वीकार हैं। तुम इतनी सुन्दर होकर हृदय से इतनी कलुषपूर्ण हो, इसका मुझे अनुमान, विचार तक न था। मैं न जानता था कि तुम मेरे दोनों वरदानों का यह परयोग करोगी। खैर, तुम्हारा राज्य तुमको सुखी करे। प्यारे राम! मुझे क्षमा करना। तुम्हारा पिता जिसने तुम्हें गोद में खिलाया, आज एक स्त्री के छल में पड़कर तुम्हारी गर्दन पर तलवार चला रहा है। किन्तु बेटा! देखना, रघुकुल के नाम पर कलंक न लगने पाये....
यह कहतेकहते राजा मूर्छित हो गये। कैकेयी दिल में परसन्न हो रही थी, कल से अयोध्या में मेरे नाम का डंका बजेगा। वह सबेरे किसी दूत को कश्मीर भेजकर भरत को बुलाने का निश्चय कर रही थी। अहा! वह घड़ी कितनी शुभ होगी, जब भरत अयोध्या के राजा होंगे! राजा थोड़ीथोड़ी देर के बाद करवट बदलते और कराहते थे। हाय राम! हाय राम! इसके अतिरिक्त उनके मुंह से कोई शब्द न निकलता था।
इस परकार सारी रात बीत गयी। सुबह को शहर के धनी मानी, विद्वान्, ऋषिमुनि और दरबार के सभासद तिलक का अनुष्ठान करने के लिए उपस्थित हुए। हवनकुण्ड में आग जलाई गयी। आचार्य लोग वेदमन्त्रों का पाठ करने लगे। भिक्षुओं का एक दल दान के रुपये लेने के लिये फाटक पर एकत्रित हो गया। लोगों की आंखें राजमहल के द्वार की ओर लगी हुई हैं। राजा साहब आज क्यों इतना विलम्ब कर रहे हैं। हर आदमी अपने पास बैठे आदमी से यही परश्न कर रहा है। शायद राजसी पोशाक पहन रहे हों। किन्तु नहीं, वह तो बहुत तड़के उठा करते हैं। अन्दर से कोई समाचार भी नहीं आता। रामचन्द्र स्नानपूजा से निवृत्ति होकर बैठे हैं। कौशल्या की परसन्नता का अनुमान कौन कर सकता है? परासाद में मंगलगीत गाये जा रहे हैं। द्वार पर नौबत बज रही है, पर दशरथ का पता नहीं।
अन्त में गुरु वशिष्ठ ने साइत टलते देखकर मन्त्री सुमन्त्र को महल में भेजा कि जाकर महाराज को बुला लाओ।
सुमन्त्र अन्दर गये तो क्या देखते हैं कि महाराज भूमि पर पड़े कराह रहे हैं। और कैकेयी द्वार पर खड़ी है। सुमन्त्र ने रानी कैकेयी को परणाम किया और बोले—महाराज की नींद अभी नहीं टूटी? बाहर गुरु वशिष्ठ जी बैठे हुए हैं। तिलक का मुहूर्त्त टला जाता है आप तनिक उन्हें जगा दें।
कैकेयी बोली—महाराज को परसन्नता के मारे आज रात भर नींद नहीं आयी। इस समय तनिक आंख लग गयी है। अभी जगा दूंगी तो उनका सिर भारी हो जायेगा। तुम तनिक जाकर रामचन्द्र को अन्दर भेज दो। महाराज उनसे कुछ कहना चाहते हैं।
सुमन्त्र ने यह दृश्य देखकर ताड़ लिया कि अवश्य कोई षड्यंत्र उठ खड़ा हुआ है। जाकर रामचन्द्र जी से यह सन्देश कहा। रामचन्द्र जी तुरन्त अन्दर आकर राजा दशरथ के सामने खड़े हो गये और परणाम करके बोले—पिताजी मैं उपस्थित हूं, मुझे क्यों स्मरण किया है?
दशरथ ने एक बार विवश निगाहों से रामचन्द्र को देखा और ठंडी सांस भर कर सिर झुका लिया। उनकी आंखों से आंसू जारी हो गये। रामचन्द्र को सन्देह हुआ कि सम्भवतः आज महाराज मुझसे अपरसन्न हैं। बोले—माता जी! पिता जी ने मेरी बातों का कुछ भी उत्तर न दिया, शायद वह मुझसे नाराज हैं।
कैकेयी बोली—नहीं बेटा, वह तुमसे नाराज नहीं हैं। तुमसे वह इतना परेम करते हैं, तुमसे क्यों नाराज होने लगे। वह तुमसे कुछ कहना चाहते हैं। किन्तु इस भय से कि शायद तुम्हें बुरा मालूम हो, या तुम उनकी आज्ञा न मानो, कहते हुए झिझकते हैं। इसलिये अब मुझी को कहना पड़ेगा। बात यह है, महाराज ने मुझे दो वचन दिये थे। आज वह उन वचनों को पूरा करना चाहते हैं। यदि तुम उन्हें पूरा करने को तैयार हो, तो मैं कहूं।
राम ने निडर भाव से कहा—माता जी, मेरे लिये पिता की आज्ञा मानना कर्तव्य है। संसार में ऐसा कोई बल नहीं जो मुझे यह कर्तव्यपालन करने से रोक सके। आप तनिक भी विलम्ब न करें। मैं सर आंखों पर उनकी आज्ञा का पालन करुंगा। मेरे लिये इससे अधिक और क्या सौभाग्य की बात होगी।
कैकेयी—हां, सुपुत्र बेटों का धर्म तो यही है। महाराज ने अब तुम्हारी जगह भरत का तिलक करने का निर्णय किया है और तुम्हें चौदह बरस के लिये वनवास दिया है। महाराज ये बातें अपने मुंह से न कह सकेंगे, मगर वह जो कुछ चाहते हैं, वह मैंने तुमसे कह दिया। अब मानना तुम्हारे अधिकार में है। यह तुमने न माना, तो दुनिया में राजा पर यह अभियोग लगेगा कि उन्होंने अपने वचन को पूरा न किया और तुम्हारे सिर यह कि पिता की आज्ञा न मानी।
रामचन्द्र यह आज्ञा सुनकर थोड़ी देर के लिये सहम उठे। क्या समझते थे क्या हुआ। सारी परिस्थिति उनकी समझ में आ गयी। यदि वह चाहते तो इस आज्ञा की चिन्ता न करते। सारी अयोध्या उनके नाम पर मरती थी। किन्तु सुशील बेटे पिता की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा समझते हैं।
राम ने उसी समय निश्चय कर लिया कि मुझ पर चाहे जो कुछ बीते, पिता की आज्ञा मानना निश्चित है। बोले—माता जी, मेरी ओर से आप तनिक भी चिन्ता न करें। मैं आज ही अयोध्या से चला जाऊंगा। आप किसी दूत को भेजकर भरत को बुला भेजिये। मुझे उनके राजतिलक होने का लेशमात्र भी खेद नहीं है। मैं अभी माता कौशल्या से पूछ कर और सीता जी को आश्वासन देकर जंगल की राह लूंगा।
यह कहकर रामचन्द्र जी ने राजा के चरणों पर सिर झुकाया, माता कैकेयी को परणाम किया और कमरे से बाहर निकले। राजा दशरथ के मुंह से दुःख या खेद का एक शब्द भी न निकला। वाणी उनके अधिकार में न थी। ऐसा मालूम हो रहा था, कि नसों की राह जान निकली जा रही है। जी में आता था कि राम के पैर पकड़कर रोक लूं। अपने ऊपर क्रोध आ रहा था। कैकेयी के ऊपर क्रोध आ रहा था। ईश्वर से परार्थना कर रहे थे कि मुझे मृत्यु आ जाय, इसी समय इस जीवन का अन्त हो जाय। छाती फटी जाती थी। आह! मेरा प्यारा बेटा इस तरह चला जा रहा है और मैं जबान से ाढ़स का एक वाक्य भी नहीं निकाल सकता। कौन पिता इतना निर्दयी होगा? यह सोचतेसोचते राजा को मूर्छा आ गयी।
रामचन्द्र यहां से कौशल्या के पास पहुंचे। वे उस समय निर्धनों को अन्न और वस्त्र देने का परबन्ध कर रही थीं। राम को देखते ही बोलीं—क्या हुआ बेटा राजा बाहर गये कि नहीं? अब तो देर हो रही है।
रामचन्द्र ने आवाज को संभालकर कहा—माता जी, मामला कुछ और हो गया। महाराज ने अब भरत को राज देने का निर्णय किया है और मुझे चौदह बरस के बनवास की आज्ञा दी है। मैं आपसे आज्ञा लेने आया हूं, आज ही अयोध्या से चला जाऊंगा।
रानी कौशल्या को मूर्च्छासी आ गयी। रामचन्द्र की ओर निस्तेज आंखों से देखती रह गयीं, जैसे कोई मिट्टी की मूर्ति हों।
लक्ष्मण भी वहीं खड़े थे। यह बात सुनते ही उनके त्योरियों पर बल पड़ गये। आंखों से चिनगारियां निकलने लगीं। बोले—यह नहीं हो सकता। कदापि नहीं हो सकता। भरत कभी लक्ष्मण के जीते जी अयोध्या के राजा नहीं हो सकते। आप क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय का धर्म है, अपने अधिकार के लिये युद्ध करना। सारी अयोध्या, सारा कोशल आपकी ओर है। सेना आपका संकेत पाते ही आपकी ओर हो जायेगी। भरत अकेले कर ही क्या सकते हैं। यह सब रानी कैकेयी का षड्यंत्र है।
रामचन्द्र ने लक्ष्मण की ओर परेमपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—भैया, कैसी बातें करते हो! रघुकुल में जन्म लेकर पिता की आज्ञा न मानूं, तो संसार को क्या मुंह दिखाऊंगा। भाग्य में जो लिखा है; वह पूरा होकर रहेगा। उसे कौन टाल सकता है?
लक्ष्मण—भाई साहब! भाग्य की आड़ वे लोग लेते हैं जिनमें पराक्रम और साहस नहीं होता। आप क्यों भाग्य की आड़ लें? आप की भौहों के एक संकेत पर सारी अयोध्या में तूफान आ जायगा। भाग्य साहस का दास है, उसका राजा नहीं! यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं इस धनुष और बाण के बल से भाग्य को आपके चरणों में गिरा दूं। फिर आपसे महाराज ने अपनी जिह्वा से तो कुछ कहा नहीं। क्या यह सम्भव नहीं कि रानी कैकेयी ने अपनी ओर से यह षड्यंत्र किया हो?
रानी कौशल्या ने आंसू पोंछते हुए कहा—बेटा! मुझे इस बात की तो सच्ची खुशी है कि तुम अपने योग्यतम पिता की आज्ञा मानने के लिये अपने जीवन की बलि देने को तैयार हो, किन्तु मुझे तो ऐसा परतीत होता है कि लक्ष्मण का विचार ठीक है। कैकेयी ने अपनी ओर से यह छल रचा है।
रामचन्द्र ने आदर के साथ कहा—माता जी, पिताजी वहीं मौजूद थे। यदि रानी कैकेयी ने उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई बात कही होती, तो क्या वह कुछ आपत्ति न करते? नहीं माता जी, धर्म से मुंह मोड़ने के लिये हीले ूंढ़ना मैं धर्म के विरुद्ध समझता हूं। कैकेयी ने जो कुछ कहा है, पिताजी की स्वीकृति से कहा है। मैं उनकी आज्ञा को किसी परकार नहीं टाल सकता। आप मुझे अब जाने की अनुमति दें। यदि जीवित रहा तो फिर आपके चरणों की धूलि लूंगा।
कौशल्या ने रामचन्द्र का हाथ पकड़ लिया और बोली—बेटा! आखिर मेरा भी तो तुम्हारे ऊपर कुछ अधिकार है! यदि राजा ने तुम्हें वन जाने की आज्ञा दी है, तो मैं तुम्हें इस आज्ञा को मानने से रोकती हूं। यदि तुम मेरा कहना न मानोगे, तो मैं अन्नजल त्याग दूंगी और तुम्हारे ऊपर माता की हत्या का पाप लगेगा।

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